Thursday, August 26, 2021

पण्डित राम प्रसाद 'बिस्मिल'

प्यारे देशवासियों आप सभी को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं दोस्तों आज के इस पावन पर्व पर हम याद करेंगे अमर क्रांतिकारी शहीद रामप्रसाद बिस्मिल दोस्तों राम प्रसाद बिस्मिल भारत के महान क्रांतिकारी अग्रणी सेनानी ही नहीं  अपितु उच्च कोटी के कवि शायर अनुवादक बहु भाषाई इतिहासकार व साहित्यकार भी थे जिन्होंने भारत की आजादी के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी

आज हम उनकी कुछ अमर पंक्तियां इस एपिसोड में सुनेंगे


काकोरी काण्ड का मुकदमा


काकोरी काण्ड का मुकदमा लखनऊ में चल रहा था। पण्डित जगतनारायण मुल्ला सरकारी वकील के साथ उर्दू के शायर भी थे। उन्होंने अभियुक्तों के लिए "मुल्जिमान" की जगह "मुलाजिम" शब्द बोल दिया। फिर क्या था पण्डित राम प्रसाद 'बिस्मिल' ने तपाक से उन पर ये चुटीली फब्ती कसी:

 "मुलाजिम हमको मत कहिये, बड़ा अफ़सोस होता है;

अदालत के अदब से हम यहाँ तशरीफ लाए हैं।

पलट देते हैं हम मौजे-हवादिस अपनी जुर्रत से;

कि हमने आँधियों में भी चिराग अक्सर जलाये हैं।"

उनके कहने का मतलब स्पष्ठ था कि मुलाजिम वे (बिस्मिल) नहीं, मुल्ला जी हैं जो सरकार से तनख्वाह पाते हैं। वे (बिस्मिल आदि) तो राजनीतिक बन्दी हैं अत: उनके साथ तमीज से पेश आयें। साथ ही यह ताकीद भी की कि वे समुद्र तक की लहरों तक को अपने दुस्साहस से पलटने का दम रखते हैं; मुकदमे की बाजी पलटना कौन चीज? इतना बोलने के बाद किसकी हिम्मत थी जो उनके आगे ठहरता। मुल्ला जी को पसीने छूट गये और उन्होंने कन्नी काटने में ही भलाई समझी। वे चुपचाप पिछले दरवाजे से खिसक लिये। फिर उस दिन उन्होंने कोई जिरह की ही नहीं। ऐसे हाजिरजबाब थे बिस्मिल!

आत्मकथा का लेखन जेल में

प्रिवी कौन्सिल से अपील रद्द होने के बाद फाँसी की नई तिथि १९ दिसम्बर १९२७ की सूचना गोरखपुर जेल में बिस्मिल को दे दी गयी थी किन्तु वे इससे जरा भी विचलित नहीं हुए और बड़े ही निश्चिन्त भाव से अपनी आत्मकथा, जिसे उन्होंने निज जीवन की एक छटा नाम दिया था,पूरी करने में दिन-रात डटे रहे,एक क्षण को भी न सुस्ताये और न सोये। उन्हें यह पूर्वाभास हो गया था कि बेरहम और बेहया ब्रिटिश सरकार उन्हें पूरी तरह से मिटा कर ही दम लेगी तभी तो उन्होंने आत्मकथा में एक जगह उर्दू का यह शेर लिखा था -

"क्या हि लज्जत है कि रग-रग से ये आती है सदा,

 

दम न ले तलवार जब तक जान 'बिस्मिल' में रहे।"

 

जब बिस्मिल को प्रिवी कौन्सिल से अपील खारिज हो जाने की सूचना मिली तो उन्होंने अपनी एक गजल लिखकर गोरखपुर जेल से बाहर भिजवायी जिसका मत्ला (मुखड़ा) यह था -

"मिट गया जब मिटने वाला फिर सलाम आया तो क्या

दिल की बरवादी के बाद उनका पयाम आया तो क्या!!"

जैसा उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा भी,और उनकी यह तड़प भी थी कि कहीं से कोई उन्हें एक रिवॉल्वर जेल में भेज देता तो फिर सारी दुनिया यह देखती कि वे क्या-क्या करते? उनकी सारी हसरतें उनके साथ ही मिट गयीं। हाँ! मरने से पूर्व आत्मकथा के रूप में वे एक ऐसी धरोहर हमें अवश्य सौंप गये जिसे आत्मसात् करके हिन्दुस्तान ही नहीं, सारी दुनिया में लोकतन्त्र की जड़ें मजबूत की जा सकती हैं। यद्यपि उनकी यह अद्भुत आत्मकथा आज इण्टरनेट पर मूल रूप से हिन्दी भाषा में भी उपलब्ध है तथापि यहाँ पर यह बता देना भी आवश्यक है कि यह सब कैसे सम्भव हो सका। बिस्मिलजी का जीवन इतना पवित्र था कि जेल के सभी कर्मचारी उनकी बड़ी इज्जत करते थे ऐसी स्थिति में यदि वे अपने लेख व कवितायें जेल से बाहर भेजते भी रहे हों तो उन्हें इसकी सुविधा अवश्य ही जेल के उन कर्मचारियों ने उपलब्ध करायी होगी,इसमें सन्देह करने की कोई गुन्जाइश नहीँ। अब यह आत्मकथा किसके पास पहले पहुँची और किसके पास बाद में, इस पर बहस करना व्यर्थ होगा। बहरहाल इतना सत्य है कि यह आत्मकथा उस समय के ब्रिटिश शासन काल में जितनी बार प्रकाशित हुई, उतनी बार जब्त हुई।

 

मूल आत्मकथा

वर्तमान में यू० पी० के सी० आई० डी० हेडक्वार्टर, लखनऊ के गोपनीय विभाग में मूल आत्मकथा का अँग्रेजी अनुवाद आज भी सुरक्षित रखा हुआ है। बिस्मिल की जो आत्मकथा काकोरी षड्यन्त्र के नाम से वर्तमान पाकिस्तान के सिन्ध प्रान्त में तत्कालीन पुस्तक प्रकाशक भजनलाल बुकसेलर ने आर्ट प्रेस,सिन्ध (वर्तमान पाकिस्तान) से पहली बार सन १९२७ में बिस्मिल को फाँसी दिये जाने के कुछ दिनों बाद ही प्रकाशित कर दी थी वह भी सरफरोशी की तमन्ना ग्रन्थावली के भाग- तीन में अविकल रूप से सुसम्पादित होकर सन् १९९७ में आ चुकी है।

गान्धी जी को राष्ट्रपिता घोषित करके उनका फोटो भारतीय मुद्रा पर छाप दिया, रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा सन् १९११ में जॉर्ज पंचम की स्तुति प्रशस्ति में लिखा व गाया गया गीत "भारत भाग्य विधाता" राष्ट्रगान घोषित कर दिया और कांग्रेस को करप्शन की खुली छूट दे दी। लोकतन्त्र के नाम पर सम्पूर्ण शासन व्यवस्था को लूटतन्त्र बना दिया और शहादत के नाम पर केवल गान्धी (नेहरू)-परिवार की कुर्बानियों को तिल का ताड़ बनाकर प्रस्तुत किया। ऐसी परिस्थितियों में फिर से आम आदमी को राम प्रसाद बिस्मिल की रचनाओं का वास्तविक क्रान्ति-दर्शन समझाने की आवश्यकता है।

विश्व साहित्य में बिस्मिल

वर्ष १९८५ में विज्ञान भवन नई दिल्ली में आयोजित भारत और विश्व साहित्य पर अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में एक भारतीय प्रतिनिधि ने अपने लेख के साथ सरफरोशी की तमन्ना ( बिस्मिल की प्रसिद्ध रचना) सहित पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल की कुछ लोकप्रिय कविताओं का द्विभाषिक काव्य रूपान्तर प्रस्तुत किया ।

सरफरोशी की तमन्ना ( बिस्मिल की प्रसिद्ध रचना)

 

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,

देखना है जोर कितना बाजुए-क़ातिल में है 

वक़्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमाँ !

हम अभी से क्या बताएँ क्या हमारे दिल में है !

खीँच कर लाई है हमको क़त्ल होने की उम्म्मीद,

आशिकों का आज जमघट कूच-ए-क़ातिल में है !

ऐ शहीदे-मुल्के-मिल्लत हम तेरे ऊपर निसार,

अब तेरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफ़िल में है !

अब न अगले बल्वले हैं और न अरमानों की भीड़,

सिर्फ मिट जाने की हसरत अब दिले-'बिस्मिल' में है !

नोट: बिस्मिल की उपरोक्त गज़ल क्रान्तिकारी जेल से पुलिस की लारी में अदालत में जाते हुए, अदालत में मजिस्ट्रेट को चिढाते हुए व अदालत से लौटकर वापस जेल आते हुए कोरस के रूप में गाया करते थे। बिस्मिल के बलिदान के बाद तो यह रचना सभी क्रान्तिकारियों का मन्त्र बन गयी। जितनी रचना यहाँ दी जा रही है वे लोग उतनी ही गाते थे

जज्वये-शहीद

मुखम्मस में प्रत्येक बन्द या चरण ५-५ पंक्ति का होता है पहले चरण में एक-सी लयबद्धता होती है और बाद के सभी बन्द अन्तिम पंक्ति में उसी लय में आबद्ध होते रहते हैं।

 

( बिस्मिल के मशहूर उर्दू मुखम्मस जज्वये-शहीद का काव्यानुवाद)

 

सर फ़िदा करते हैं कुरबान जिगर करते हैं,

पास जो कुछ है वो माता की नजर करते हैं ,

खाना वीरान कहाँ देखिये घर करते हैं!

खुश रहो अहले-वतन! हम तो सफ़र करते हैं ,

जा के आबाद करेंगे किसी वीराने को 

नौजवानो ! यही मौका है उठो खुल खेलो,

खिदमते-कौम में जो आये वला सब झेलो ,

देश के वास्ते सब अपनी जबानी दे दो ,

फिर मिलेंगी न ये माता की दुआएँ ले लो ,

देखें कौन आता है ये फ़र्ज़ बजा लाने को ?

 

नोट: बिस्मिल का यह उर्दू मुखम्मस भी उन दिनों सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ करता था यह उनकी अद्भुत रचना है यह इतनी अधिक भावपूर्ण है कि लाहौर कान्स्पिरेसी केस के समय जब प्रेमदत्त नाम के एक कैदी ने अदालत में गाकर सुनायी थी तो श्रोता रो पडे थे। जज अपना फैसला तत्काल बदलने को मजबूर हो गया और उसने प्रेमदत्त की सजा उसी समय कम कर दी थी। अदालत में घटित इस घटना का उदाहरण भी इतिहास में दर्ज हो गया।

 

जिन्दगी का राज

नोट :1 ( बिस्मिल की एक उर्दू गजल जिन्दगी का राज ) में जीवन का वास्तविक दर्शन निहित है शायद इसीलिये उन्होंने इसका नाम राजे मुज्मिर या जिन्दगी का राज मुजमिर (कहीं-कहीं यह भी मिलता है) दिया था। वास्तव में अपने लिये जीने वाले मरने के बाद विस्मृत हो जाते हैं पर दूसरों के लिये जीने वाले हमेशा-हमेशा के लिये अमर हो जाते हैं।

 

नोट :2 गोरखपुर जेल से चोरी छुपे बाहर भिजवायी गयी बिस्मिल की अन्तिम रचना इस गजल में प्रतीकों के माध्यम से अपने साथियों को यह सन्देशा भेजा था कि अगर कुछ कर सकते हो तो जल्द कर लो वरना सिर्फ पछतावे के कुछ भी हाथ न आयेगा लेकिन इस बात का उन्हें मलाल ही रह गया कि उनकी पार्टी का कोई एक भी नवयुवक उनके पास उनका रिवाल्वर तक न पहुँचा सका। उनके अपने वतन शाहजहाँपुर के लोग भी इसमें भाग दौड के अलावा कुछ न कर पाये। बाद में इतिहासकारों ने न जाने क्या-क्या मन गढन्त लिख दिया।

 

 

मिट गया जब मिटने वाला फिर सलाम आया तो क्या !

दिल की बर्वादी के बाद उनका पयाम आया तो क्या !

मिट गईं जब सब उम्मीदें मिट गए जब सब ख़याल ,

उस घड़ी गर नामावर लेकर पयाम आया तो क्या !

ऐ दिले-नादान मिट जा तू भी कू-ए-यार में ,

फिर मेरी नाकामियों के बाद काम आया तो क्या !

काश! अपनी जिंदगी में हम वो मंजर देखते ,

यूँ सरे-तुर्बत कोई महशर-खिराम आया तो क्या !

आख़िरी शब दीद के काबिल थी 'बिस्मिल' की तड़प ,

सुब्ह-दम कोई अगर बाला-ए-बाम आया तो क्या

 



माँ माँ ओ माँ ये केसी दिवाली हे

By:-Rohit Sharma(9893444866):- माँ माँ ओ माँ ये केसी दिवाली हे सबके घर उजाला हे, अपनी राते काली हे माँ माँ कितने दिन से पापा का दे...